Tuesday 15 December 2015

|| सुरंग ||



















काफ़ी वक़्त बीत गया ये सोचते हुए
के शुरू कहाँ किया था खुद को छुपाना

बड़ी गहरी खाई बनाई थी, बरसों के मेहनत से
पर भूल गये थे बाहर का रास्ता बनाना |

अचानक कुछ पत्थर गिर गये, चौंका दिया हमें
बड़े उदास रहे कुछ देर, 
के शक़ल बिगड़ गयी बसेरे की

फिर कहीं से रोशनी सी आने लगी
आंखें बंद कर ली तुरंत हमने,
के आदत हो गयी थी अंधेरे की |

हम लड़खड़ाए, फिर उठे, उस तरफ बढ़ने लगे
तो दिखने लगे वो आज़ाद ख्वाब, जो कभी मुमकिन से लगते थे

दोबारा सुराक ढूँडने लगे उन नादान मंज़िलों की तरफ
जिन्हे हासिल करने के वादे, किन किन से करते थे |

जब चलने लगे इतने साल बाद उस सुरंग से बाहर
तो महसूस हुआ के पैरों में ज़ॅंग सी पड़ गयी हैं

हम खुद ही को बाँधे थे, इन ज़ंजीरों में
जो आज भार में बहुत बढ़ गयी हैं |

नही चल पाए आख़िर एक बार फ़िर
और कोसते रहे पत्थरों के गिरने को...

सबेरे तो कभी भी पसंद नही थी हमें

बस मिराज होती हैं रोशनी, भरोसे के लायक नहीं |

मालूम है रात आ जाएगी फिर कुछ घंटों में

ये ज़ंजीरें भी फिर से दिखाई नही देंगी

पर अब डर लग रहा है सुबह होने का

के वो बंजर उम्मीदें फिर परेशान करेंगी

बात हौसले की नही, फ़ैसलों की है

के कुछ हम करते हैं, कुछ ज़िन्दगी |

कभी मुक्कमल दोस्ती हमारी याद आई तो
वो पत्थर फिर से डाल जाना दोस्त,

सो तो हम जाते हैं रोज़ हिसाब करते हुए

नींद आए मगर बड़ा वक़्त हो गया |

10 comments:

  1. Well penned.... I can feel the pain....
    Feel the optimism.... read it bottom up....!!!

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  2. well sum1 is using her free time anyways its absorbing and pleasurable to pursue

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  3. One should always pen down when one is welling up with emotions and this piece seems to have been penned in some such poignant moments. Well written.

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